Tuesday, December 18, 2007

एक और दिन चला गया यूँ ही...

रात हो चुकी थी
दिन भर के थके पंछी
संतुष्ट एवं आनंदमग्न
चहचहा रहे थे अपने घोंसलों में
पेड़-पोधे भी अपार संतोष लिये
सो रहे थे गहरी नींद में
वहीं दूसरी ओर
इंसानों की बस्ती में
छाई हुई थी गहरी उदासी
सब सोच रहे थे
एक और दिन चला गया यूँ ही
बाकी दिनों की ही तरह
भरपूर रोशनी के साथ आया था दिन
साथ में हम भी हुए थे रोशन
पर इतने ही की
जा सकें काम पर
पूर्वाग्रहों में जकड़े
हम ना कर सके
अपने संगियों के
अच्छे कामों की भी तारीफ़

प्रतिस्पर्धा में उलझे
हम ना सुन सके
प्रकृति का गान
नाखुश ही रहे
अपनी छोटी-बड़ी उपलब्धियों पर
ईर्ष्या में फ़से
घुटते रहे दिनभर
रात को जब घर लौटे
तो स्वयं को विचार शून्य पाया
लंबा इंतजार कर रहे बच्चे
लूम पड़े हमपर
निरुत्साहित और उदास
हम ना बन सके बच्चे
अपने बच्चों के लिये

Saturday, December 15, 2007

नेता बनाम राजा...

बिन्देश्वरी दुबे शहर के बड़े लोकप्रिय नेता माने जाते थे । उनके कद का कोई दूजा नेता पूरे नगर में ना था । जनता उन्हें गरीबों का मसीहा मानती थी । कालेज में छात्रों के बीच उनकी बड़ी चर्चा हुआ करती थी । राकेश भी उन्हीं छात्रों में एक था । राकेश के दादा स्वर्गीय पन्नालाल जी स्वतंत्रता संग्राम सैनानी थे । इसके कारण उसके मन पर राष्ट्रवादी विचारों का बड़ा प्रभाव था । लोगों से नेता जी की बढ़ाई सुनकर राकेश का मन स्वत: ही उनके व्यक्तित्व से प्रभावित हो रहा था । वह स्वयं भी अपने आपको भविष्य में एक राष्ट्र समर्पित नेता के रूप में देखता था । उसने सोचा दुबे जी इतने बड़े नेता हैं । मुझे उनके सानिध्य में रहकर नेतृत्व के गुर और उनमे आने वाली समस्याओं का अनुभव लेना चाहिये । यह सोचकर राकेश नेता जी के घर पहुँचा । घर के चोकीदार ने रोका और कहा की नेता जी किसी एरे-गेरे से नहीं मिलते । मिलना हो तो महिने में एक दिन जनता दरबार लगता है तब आ जाना मिलवा देंगे । राकेश सोचने लगा ये कैसे नेता हैं । जिन्होंने नेता बनाया उनसे ही महिने में एक बार मिलते हैं । और यह जनता दरबार क्या होता है दुबे जी नेता हैं या कोई राजा । खेर मन में उनसे मिलने की लगन के कारण राकेश जनता दरबार वाले दिन नेता जी से मिलने पहुँचा । उसने देखा नेता जी कुर्सी पर बैठें हैं और बहुत सारे लोग सामने जमीन पर अपनी अर्जी लेकर अपने नंबर का इंतजा़र कर रहें हैं । जब राकेश का नंबर आया तो नेता जी उससे बोले आपकी अर्जी कहाँ है । यह सुनकर उसने उन्हें अपने आने का कारण बताया । नेता जी बोले अरे भैया इस सब में क्यों पड़ते हो । हम हैं ना तुम्हारे नेता । हमे अपना काम बताओ । जनता हमारे राज में खुश है । ऎसा कोई काम है जो हम नहीं कर सकते । राकेश सोच रहा था यह जनता नहीं आपकी प्रजा है और आप नेता नहीं एक राजा हैं । आपने सच कहा आप सब कुछ कर सकतें हैं । बस कोई सच्चा राष्ट्रवादी नेता नहीं पैदा कर सकते ।

Saturday, September 29, 2007

सपने भी सुंदर आयेगें...

संस्कारों से मिली थी
उर्वरा धरती मुझे
स्नेह का स्पर्श पाकर
बाग पुष्पित हो गया
भावनाओं से पिरोया
सूत में हर पुष्प को
माला ना फ़िर भी बन सकी
अर्पण जिसे मैं कर सकूँ
हे ईश सविनय आज तुमको

प्रयास भगीरथ का यहाँ
हमसे यही तो कह रहा
असंभव कुछ भी नहीं
सत्कर्म पर निष्ठा रखे
गर आदमी चलता रहे

फ़िर सोचता हूँ
क्या कर्म है सबकुछ जहाँ में
भाग्य कुछ होता नहीं
सच है अगर यह बात तो
श्रमवीर सब हँसते जगत में
एक भी रोता नहीं

कर्म है सबका सवेरा
भाग्य कुछ सपनों सा है
कर्म अगर अच्छे रहे
तो सपने भी सुंदर आयेगें

Tuesday, September 18, 2007

अपहरण...

अभी कुछ दिन पहले
किसी अपने ने मुझसे कहा
अरे अब तो आप भी हो गये
रीतेश होशंगाबादी
मैं सोचने लगा
अब कहाँ होती है
व्यक्ति की पहचान उसके
गाँव या शहर से
उसकी पहचान
अब सिर्फ़ इससे है
की वह आदमी है या औरत
और हाँ उसकी उम्र क्या है
मेरा शहर जो
समय से पहले ही
जवान हो गया है
मुझे बूढ़ा घोषित कर चुका है
लेकिन वो यह नहीं जानते
की मैं शहर में नहीं
शहर मेरे अंदर रहता है
और जब तक ऎसा है
मेरे जैसा हर व्यक्ति
नहीं करने देगा उन्हें
अपने ही शहर की
संस्कृति का अपहरण

Friday, September 14, 2007

एक अच्छी कविता की नींव...

कुछ देर पहले ही की तो बात है
हर तरफ़ लगा हुआ था मेला
कोई भी नहीं था मेरे अंदर अकेला
मिल रही थी ह्रदय को पर्याप्त वायु
मन आश्वस्थ था
और कान भूल गये थे सन्नाटे की आवाज
फ़िर रूक रूककर आने लगीं गहरी साँसें
रह रहकर आने लगी सन्नाटे की आहट
जैसे जा रहा हो कोई दूर मुझसे
अचानक यह सिलसिला भी बंद हो गया
हर तरफ़ भीड़ थी फ़िर भी
मन बिलकुल अकेला हो गया
तुरंत ही मन बावला हो
ढूँढने लगा अपने संगी-साथी
कुछ ही देर की छ्टपटाहट के बाद
मन रूका और सोचने लगा
किससे कहेगा यह मन
अपने मन की बात
बुध्दिवादी दुनियाँ में
ह्रदय की कविता कौन समझेगा
आजकल किसके पास है
ऎसा धीरज और समय
जो रुकेगा कविता के लिये
एकाएक ही मन
उत्साहित हो चल दिया
चिट्ठों की दुनियाँ में
यहाँ भी सबकुछ प्रिय नहीं मिला
पर मिले प्रियंकर
जिनकी कवितायें बता रहीं थीं
कविताओं के कई आयाम
यहाँ भी कोई फ़ुरसत में नहीं मिला
पर मिले फ़ुरसतिया
जिनके जीवन स्पर्शी संस्मरण
ले गये मुझे साहित्य की गोद में
यहाँ मिली मुझे लालाजी की उड़न तश्तरी
जिसमें बैठते ही मन
भूल गया अपना अकेलापन
यहाँ ही मन मिल सका
एक अदभुत दिव्य से
जो पारखी था शब्दों और भावनाओं का
फ़िर मिला एक गीतकार
जिनके श्रीमुख से प्रस्फ़ुटित हो
निर्मल सरिता से बह रहे थे गीत
इन्हीं सब भावनाओं के बीच
मैंने देखा
मन फ़िर रख रहा था
एक अच्छी कविता की नींव

Sunday, August 26, 2007

मेरी रागिनी मनभावनी...

मेरी रागिनी मनभावनी
मेरी कामिनी गजगामिनी
जीवन के पतझड़ में मेरे
तू है बनी मेरी सावनी

शब्द सब खामोश थे
बेरंग थी मन भावना
संगीतमय जीवन बना
जो तू बनी मेरी रागिनी

आँखों को जो अच्छा लगे
सुंदर कहे दुनियाँ उसे
सिर्फ़ सुंदर तुम्हें कैसे कहूँ
जो तू तो है मनमोहिनी

तू है कहीं कोई डगर
मैं जानता हूँ ये मगर
शामें वहाँ खुशहाल हैं
और है तिमिर में रोशनी

जीवन की है यह दोपहर
अभी दूर है अपनी सहर
मंजिल का वो मेरा यकीं
तेरा साथ है मेरी संगिनी

मेरी रागिनी मनभावनी
मेरी कामिनी गजगामिनी


*सहर=सुबह
**तिमिर=अंधेरा

Saturday, August 18, 2007

शेर और भैंस...

रोज-रोज की मारामारी से तंग आकर
भैंसों ने सोचा चलो शेरों से संधि की जाये
शेरों की जरूरत को ध्यान में रखते हुये
तय हुआ कि रोज दो भैंसें शेरों को सौंप दी जायेगीं
जानकर शेरों का चेहरा खिल गया
सोचने लगे चलो बैठे-बैठे खाने को मिल गया
उधर भैंसों के झुंड भी निश्चिंत हो जंगल में चरने लगे
डर को अपने जीवन से हमेशा के लिये हरने लगे
पर यह शांति कुछ दिनों की मेहमान थी
अपने स्वभाव के अनुसार

शेरों ने भैंसों पर फ़िर हमला कर दिया
कोई और रास्ता ना होता देख
भैंसों ने तय किया कि अब 

शेरों से संधि नहीं
एकजुटता के साथ मुकाबला किया जायेगा
धीरे-धीरे फ़िजा़ बदली

अब भैंसें मरने की बजाय शहीद होने लगीं
उनके बच्चों की आँखों में डर के बजाय वीरता दिखने लगी
शेरों की क्या कहें

आजकल वो भी झुंड में चल रहें हैं
शेर तो कम कुछ-कुछ
भैंसों से दिख रहें हैं

Monday, August 13, 2007

पति-पत्नी...

पति-पत्नी
साथ रहते रहते
कुछ-कुछ एकसा
दिखने लगते हैं
बहुत कुछ एकसा

सोचने लगते हैं
आजकल यह सोचकर
वो जरा डर रहें हैं
इसलिये चेहरे पर कम
विचारों पर अधिक
ध्यान दे रहें हैं

Tuesday, July 31, 2007

मुझे जलाने में...

वो इतना जलते हैं
फ़िर भी राख नहीं बनते
मैं सोचकर हैरान हूँ
थोड़ा परेशान हूँ
कितना जलना पड़ता होगा उन्हें
थोड़ा मुझे जलाने में


आजकल नज़र उनकी
हमसे नहीं मिलती
हमे देखते ही वो
रास्ता बदल लेते हैं
मैं सोचकर हैरान हूँ
थोड़ा परेशान हूँ
कितना गिरना पड़ता होगा उन्हें
थोड़ा मुझे गिराने में

पृष्ठभूमि...

आजकल हर छोटी बड़ी बात पर
हो जाता है संघर्ष
बह जाता है खून
पहले की तरह
अब कम ही निकलता है
बातचीत और शान्ति से
समस्याओं का समाधान


आज फ़िर दुर्योधन ठुकरा रहें हैं
कृष्ण का शान्ति संदेश
और बना रहें हैं बंदी
इंसानियत और प्रेम को


धृतराष्ट्र का मन
आज भी यही कह रहा है
मन का बुरा नहीं है
मेरा दुर्योधन
प्रतिभावान दानवीर कर्ण भी
दे रहें हैं अधर्म का साथ
और पितामह निभा रहें हैं
अपनी अंधी निष्ठा


सब मिलकर फ़िर
बना रहें हैं
एक और युद्ध की पृष्ठभूमि
जिसमे मारे जायेगें
कर्ण और दुर्योधन
नहीं बच सकेंगें पितामह
और समय से पहले ही
मारा जायेगा वीर अभिमन्यु

Saturday, July 21, 2007

घुटन होती है मुझे...

आदमखोर शेर को मारने के लिये
गाँव वालों की मेहनत से बने मचान से
बंदूकधारी हाथों को डर से काँपता देखकर
घुटन होती है मुझे


अन्याय की अट्टाहस से
मुकाबले के लिये तैयार निहत्थे लोगों से
मशीनगन लिये पुलिस वाले को यह कहता देखकर
की छोड़ो यार घर जाओ क्यों पंगा लेते हो
घुटन होती है मुझे


अपने कठिन परिश्रम से
कठोर धरती को चीरकर

सभी के लिये भोजन निकालने वाले
किसान को गरीबी से तंग आकर
आत्महत्या करने को मजबूर देखकर
घुटन होती है मुझे


जब नारंगी, नारंगी नहीं लगती
नीबू को शिकायत होती है अपने खट्टा होने से
और सारे फ़लों का स्वाद एकसा होते देखकर
घुटन होती है मुझे


जब समर्थ को उदासीन पाता हूँ
बहुत बड़े पदों पर बहुत छोटे लोगों को देखता हूँ
और जिन्हें इंसानियत का ज्ञान नहीं
उन्हें देश और समाज के प्रति कर्तव्य निभाता देखकर
घुटन होती है मुझे


जब घंटों बैठकर सोचने
और कागद कारे करने के बाद भी
कह नहीं पाता हूँ मन की बात
ऎसी अव्यक्त रह गई भावनाओं की घुटन में
घुटन होती है मुझे

Monday, July 16, 2007

किरदार...

आफ़िस से घर लौटते समय रास्ते में मैंने देखा की सड़क के एक तरफ़ काफ़ी लोग जमा हैं । मालूम हुआ मशहूर फ़िल्म अभिनेत्री नताशा की कार सामने से आते ट्रक से टकरा गई है । इस दुर्घटना में उन्हें गंभीर चोटें आयी हैं और उन्हें नजदीक के अस्पताल ले जाया गया है । घटना से दुखी मैंने अपनी कार को आगे बढ़ाया । उनके अभिनय को पसंद करने के कारण मेरा मन सहज ही उनके बारे में सोच रहा था । वे जीवन के चोथे दशक में थी और पिछले दस वर्षों से उन्होंने कई शानदार किरदार निभाये थे । अपनी फ़िल्मों में वे ज्यादातर एक अच्छी पत्नी और माँ का किरदार किया करतीं थीं । जीवन में आदर्श और सिद्धांत लिये चरित्रों को वो बड़ी सहजता से निभाती थीं । देखकर लोग भूल ही जाते थे की वो अभिनय कर रहीं हैं । इसलिये असल जिन्दगी में भी लोग उन्हें उनके फ़िल्मी चरित्रों जैसा नेक मानते थे । सो़चते हुए घर कब आ गया पता ही नहीं चला । अगले दिन अखबार से पता चला की गाड़ी चलाते वक्त नताशा प्रतिबंधित दवाओं के नशे में थीं । दो साल पहले उनका अपने पति से तलाक हो गया था । उनका इकलौता बेटा जो पाँच साल का है अपने पापा के साथ रहता है । तलाक के वक्त नताशा ने बच्चे को अपने पास रखने में असमर्थता जताई थी । यह सब पढ़कर मैं गहरी सोच में डूब गया । मन कह रहा था नताशा जी ऎसी कैसे हो सकतीं हैं ? सोच रहा था फ़िल्मों के लिये सच्चे और महान किरदार हमारे जीवन से चुराये जा सकतें हैं । परन्तु जीवन में सच्चा इंसान बनने के लिये तो ऊँचे जीवन मूल्यों और संस्कारों की ही जरूरत होती है ।

Saturday, June 02, 2007

गुम हो गया देश कहीं...




इस गुर्जर आंदोलन में
आरक्षण के आवाहन में
इसकी किसको चिंता है
अपने कितने गुजर गये

पटरी सारी उखड़ गई
रेल एक भी चली नहीं
लोगों के इस रेले में
गुम हो गया देश कहीं

कुछ इससे ही खुश हैं
की उनकी ऎसी चलती है
उनके एक इशारे पर

कुछ बसें जला दी जातीं हैं

देश नहीं एक भीड़ हूँ मैं
मैं कुछ भी कर सकता हूँ
दंडित कैसे करोगे मुझको
मैं फ़िर भी बच सकता हूँ

थोड़ा रूककर सोचें हम सब
जिम्मेदारी है यह किसकी
अच्छा होना तो अच्छा है
अब आगे इसके बढ़ना होगा

गर नेता तुम नहीं बने तो
इनसे शासित होना होगा
अपने भविष्य के सपनों में
राष्ट्र को शामिल करना होगा

Saturday, May 12, 2007

हमको एलर्जी हो गई...

छींक मार मारकर हर नस हमारी हिल गई
क्या बतायें यारों हमको एलर्जी हो गई
कह रहें हैं मित्र
और दिल खोलकर बधाई भी दे रहें हैं मित्र
ये रोग बड़े लोगों के तुझको कैसे हो गये
छोड़कर हमें अब तुम शामिल बड़ों में हो गये
कुछ यूँ हमारी गिनती
यारों बड़ों में हो गई
क्या बतायें यारों हमको एलर्जी हो गई..
जब हमने यह जाना तो सिर अपना धुन लिया
हमको एलर्जी क्योंकि अब फ़ूलों से हो गई
दुनियाँ दिवानी जिसकी उससे ही दूरी हो गई
क्या बतायें यारों हमको एलर्जी हो गई..
है दवा जरूरी पर दुआ भी चाहिये

अपनों के सहारे हालत जरा संभल गई
क्या बतायें यारों
हमको एलर्जी हो गई..

सब राम की माया है...

काँशीराम के रथ की
माया सारथी बन गई
आज देखो यूपी में
माया की चल गई
हारे थे तुम जब
कुछ यूँ कहा था तुमने
"तिलक तराजू और तलवार
इनको मारो जूते चार"
पा गये बहुमत जो
सभी का सम्मान किया
लोकतंत्र की जीत में
माया मिसाल बन गई
आज देखो यूपी में
माया की चल गई
हारे अभिनेता जो
बन रहे थे नेता
वो नेता भी हारे
जो सिर्फ़ थे अभिनेता

दलालों की मंडी में
नीलाम साईकिल हो गई
आज देखो यूपी में
माया की चल गई
नफ़रतों की आँधियों में
कुछ कमल क्या खिल गये
मान लिया तुमने की
मौसम बदल गये

राम सबके ह्रदय में
माया भी मिल गई
आज देखो यूपी में
माया की चल गई

Tuesday, May 08, 2007

श्रीमान श्रीमती...

सुनो जरा श्रीमान जी
ना बनिये नादान जी
जानो अपना मान जी
पत्नि हैं आपकी श्रीमती
समझो ना उनको मूढ़मति
..............
सुनो जरा ओ श्रीमती जी
बनिये ना यूँ अनजान जी
पति हैं आपके श्रीमान जी

उनके मान से मर्यादा है
रखें जरा इसका ध्यान जी

Sunday, April 22, 2007

मैं बकरा नहीं इंसान हूँ...

तालिबानी विचार ने एक
बारह साल के लड़के से
कहकर की यह गद्दार है
अपनी ही कौम के
एक युवक की गर्दन
हलाल करवा दी
जिसकी फ़िल्म टीवी
चेनलों ने हम तक
हिफ़ाजत से पहुँचा दी
अमानवीयता की
हर सीढ़ी ये लाँग चुके हैं
अहसास अपने मार चुके हैं
नैतिकता को बेच चुके हैं
किन्तु अभी भी नहीं चुके हैं
वह हर विचार
तालिबानी विचार है
जो इंसान से
उसका विवेक छीनकर
उसे जानवर बनाता है
नियमित रूप से घर में
बकरा हलाल करते करते
हम संवेदनहीन और
भावशून्य होते गये
उस पर चरमपंथी विचारों से
पता ही नहीं चला
कब हम स्वयं बकरा हो गये
इसलिये अब द्रश्य बदल गया है
अब एक बकरा
दूसरे बकरे को
हलाल कर रहा है

Friday, April 13, 2007

न्यायप्रिय और सत्यनिष्ठ...

संस्कार से न्यायप्रिय और सत्यनिष्ठ वह
भाग्यवादी और धार्मिक नहीं था
धर्म और इंसानियत को ही
भगवान की पूजा मानता
समाज को बदलने का उसका
जोश देखते ही बनता
अन्याय के प्रति उसका
रोष चकित करता


पर धीरे-धीरे उसने जाना
महत्व इस बात का नहीं
कि कोई क्या बोल रहा है
महत्व इस बात का है
कि वह कौन है और
कहाँ से बोल रहा है


इंसानियत को पूजा मानने वाला
कभी-कभी थक जाने पर
चिड़कर कहता
सबकुछ अपने हाथ में नहीं होता
भाग्य भी भला कोई चीज़ है

भगवान की मर्जी के बिना
एक पत्ता भी नहीं हिलता

पर जैसे हारना तो
वह जानता ही ना था
संघर्ष को ही जीवन मानता
पूछने पर कहता
यह कोई संकल्प नहीं है
पर थक कर, हार हम जायें
ऎसा कोई विकल्प नहीं है

Sunday, April 08, 2007

इंसानियत के वास्ते...

यह कविता इराक युद्ध में निरंतर हो रही निर्मम तबाही के कारण ह्रदय से प्रस्फ़ुटित हुई है.......
जाने कब रूकेगा यह रोज का विध्वंस
आज फ़िर कुछ कोपलों ने साथ छोड़ा पेड़ का
कब तलक मरते रहेंगे ख्वाब कच्ची नींद में
जान लो तुम मौत इनकी यूँ ना खाली जायेगी
तुम अगर बच भी गये जो आज अपने पाप से
कैसे बचोगे तुम बताओ इस निहत्थे श्राप से
पीढ़ियाँ बच ना सकेंगी घोर इस संताप से
है अशुभ सबकुछ वहाँ जहाँ आह है निर्दोष की
हर घड़ी शुभ है जो रोके घोर इस अन्याय को
इंसान वह है जो चले इंसानियत के रास्ते
अब भी समय है चेत जाओ इंसानियत के वास्ते
जिदंगी की राह में ना हो मौत का संकल्प कोई
और वक्त को भी रोक दो गर बच सके निर्दोष कोई

Tuesday, March 27, 2007

उपमा मुझे बहुत पसंद है...

यह जानकर की घर में आज उपमा बना
मन हो गया प्रसन्न जो था कुछ अनमना

अपने आप में ही पूर्ण होता है उपमा
नहीं चाहिये इसे रंग-बिरंगी सब्जियों का साथ
बस सूजी को देशी घी में थोड़ी देर तक
मातृप्रेम रूपी हल्की आँच में पकाईये
माँ के समान शीतल थोड़ा दही मिलाईये
माँ की डाँट जैसी मीठी नीम के साथ
माँ की खुशबू लिये राई का तड़का लगाईये

लीजिये हो गया उपमा तैयार
न तो इतना तरल की समेटा न जाये
और न ही इतना शुष्क की खाया न जाये
बिलकुल माँ के मन की तरह
अनुशासित परंतु संवेदनशील

माँ के पास ले जाता है उपमा
दूजा नहीं कोई है तेरे जैसा
तुझे कैसे दूँ किसी और की उपमा

उपमा का माँ से गहरा संबंध है
और अब यह कोई राज नहीं
की उपमा मुझे बहुत पसंद है

Thursday, March 15, 2007

कुछ मन के ख्याल..

तोड़कर मर्यादा हवा पत्तों को यूँ न उड़ा ले जाती
अगर शाखें पत्तों को सिद्दत से संभाले होतीं

तुम अपनी बात दूसरों को जरूर सुना पाते
अगर आवाज तुमने अपनी थोड़ी भी सुनी होती

रुका नहीं मैं आज उस तड़पते इंसान के लिये
गर है तड़प तो रुकुँगा कल हर इंसान के लिये


मैने कब चाहा की दुनियाँ डरे मुझसे
पर झुकी गर्दन अक्सर ही कटी है मेरी


जला हूँ हर बार जो पैमाना बनाया दूसरों को मेंने
खिला हूँ हर बार जब पैमाना मैं खुद बना होता हूँ

आप किसी के लिये कुछ करें ये अच्छी बात है
वो स्वयं के लिये कुछ कर सके ये सच्ची बात है

Thursday, February 22, 2007

कैसे दूँ तुम्हें बधाई मैं....

अपने चिंतन को जीते हो
कितनी तुम पीड़ा सहते हो
कितना तुम अंदर मरते हो
तब जाकर कविता गढ़ते हो
ऎसे ओज पूर्ण भावों पर

गहन वेदना में प्रसूत सी
मुख से फ़ूट पड़ी रचना पर
श्रद्धा से झुकता है यह मन

और देता तुम्हें सलामी है
कैसे दूँ तुम्हें बधाई मैं
कैसे दूँ तुम्हें बधाई मैं

Monday, February 19, 2007

कठिन होता है....

आसान होता है कहना
पाप से नफ़रत करो पापी से नहीं
कठिन होता है पापी से नफ़रत न करना

आसान नहीं होता सुख-दुख में समान रहना
कठिन होता है दुखों में विचलित न होना
कठिन होता है शीशे का पत्थरों के बीच रहना
कठिन होता है एक घाघ इंसान के लिये
यह समझना कि दुनियाँ में
ज्यादातर लोग घाघ नहीं होते
तो फ़िर क्यों रखता है भगवान
विपरीत प्रकृति वालों को साथ-साथ
जैसे नाजुक गुलाब के साथ होते हैं काँटे

शायद जैसे काँटों की चुभन में ही
होता है फ़ूलों की नरमी का अहसास
वैसे ही अच्छाई की सही जरूरत
तो बुराई के बीच ही होती है

Wednesday, February 07, 2007

मैं कोशिश करूगाँ...

मेरा स्वयं से यह वादा नहीं है
वैसे भी वादों पे कब टिक सका हूँ
मगर आज इतना ही कहना है मुझको
मैं इंसान बनने की कोशिश करूगाँ


धरा ने दिया है भोजन सभी का
गर अपने हिस्से का लेता रहूँ मैं
खाने के लिये जीना अच्छा नहीं है
मैं कम खाने की कोशिश करूगाँ


सच्चाई बयाँ करने की जिद में
वाणी से मेरी कई दिल दुखें हैं
और चैन मेंने भी पाया नहीं है
मैं अच्छा कहने की कोशिश करूगाँ


श्रद्धा में कवियों की हरदम झुका हूँ
खुश हूँ स्वयं को कवियों में पाकर
लिखना मुझे अभी आया नहीं है
मैं सच्चा लिखने की कोशिश करूगाँ

Monday, February 05, 2007

जलती है लौ विश्वास की...

आज देखो बज उठी फ़िर रणभेरी चुनाव की
लोकतंत्री यह व्यवस्था पूंजी है इस राष्ट्र की

ना टीवी ना आश्वासन ना नोट हमको चाहिये
वोट मेरा कर्मयोगी के लिये सम्मान है

मूल्य से ही आज यह उम्मीदवारी पाई है
कैसे रहे फ़िर राजनीति धर्म जीवन मूल्य की

राष्ट्र के स्वामी बने हैं आज एक याचक यहाँ
जनता बनी है आज राजा, भारत भूमि श्रेष्ठ की

पीढ़ियों के पुण्य से जलती है लौ विश्वास की
क्यों करे कोई तपस्या धर्म सेवा त्याग की
दंगा कराकर आप पहले असुरक्षा फ़ैलाईये
फ़िर सुरक्षा बेचकर सत्ता की रबड़ी खाईये

 

Friday, January 12, 2007

भारत का वासी हूँ किंतु प्रवासी हूँ....

आज फ़िर सवालों के समक्ष मैं मौन हूँ
सोचता हूँ कहाँ से शुरू करूँ की मैं कौन हूँ
दिल्ली की सड़कों पर चलता
निरंतर काम की तलाश करता
पहले बसने और फ़िर बसाने की चाह लिये
औसत दर्जे का एक युवा अभियंता हूँ
उच्च वर्ग को सबकुछ अपना
कमाया हुआ लगता है
निम्न वर्ग के पास देने के लिये
कुछ नहीं बचता है
मैं मध्य वर्ग का प्रतिनिधि हूँ
यहाँ जद्दोज़हद और हताशा के
बीच वैचारिक संघर्ष भी है
मैं गरीबी को जानता हूँ
और एश्वर्य को मानता हूँ
मुझमे नेतृत्व की प्रबल संभावना है
मध्य वर्ग की अभिलाषाओं और
विरोधाभासों के बीच देश छूटा
आज मैं भारत का वासी हूँ किंतु प्रवासी हूँ
जगह बदल जाने से इंसान नहीं बदलते

एक रिक्शे वाले और बेरोज़गार से
स्वयं को अलग नहीं पाता हूँ
राष्ट्र के प्रति समर्पण और प्रेम

दूरियों से कहाँ रुकता है
आज भी देश मेरे अंदर धड़कता है