तोड़कर मर्यादा हवा पत्तों को यूँ न उड़ा ले जाती
अगर शाखें पत्तों को सिद्दत से संभाले होतीं
तुम अपनी बात दूसरों को जरूर सुना पाते
अगर आवाज तुमने अपनी थोड़ी भी सुनी होती
रुका नहीं मैं आज उस तड़पते इंसान के लिये
गर है तड़प तो रुकुँगा कल हर इंसान के लिये
मैने कब चाहा की दुनियाँ डरे मुझसे
पर झुकी गर्दन अक्सर ही कटी है मेरी
जला हूँ हर बार जो पैमाना बनाया दूसरों को मेंने
खिला हूँ हर बार जब पैमाना मैं खुद बना होता हूँ
आप किसी के लिये कुछ करें ये अच्छी बात है
वो स्वयं के लिये कुछ कर सके ये सच्ची बात है
Thursday, March 15, 2007
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aapki kawitaayen hameshaa bhaut gahri hoti hain.. prerna deti hain kuchh karne ki.. khud mein jhaankne ki...
ReplyDeleteमान्या जी,
ReplyDeleteजब हम लिखना सीख रहें होते हैं उस समय हमें प्रोत्साहन की जरूरत होती है ।
हर बार की तरह जानकर अच्छा लगा की आपको कविता अच्छी लगी ।
ऎसा ही स्नेह बनाये रखें । ...धन्यवाद !!