Sunday, April 22, 2007

मैं बकरा नहीं इंसान हूँ...

तालिबानी विचार ने एक
बारह साल के लड़के से
कहकर की यह गद्दार है
अपनी ही कौम के
एक युवक की गर्दन
हलाल करवा दी
जिसकी फ़िल्म टीवी
चेनलों ने हम तक
हिफ़ाजत से पहुँचा दी
अमानवीयता की
हर सीढ़ी ये लाँग चुके हैं
अहसास अपने मार चुके हैं
नैतिकता को बेच चुके हैं
किन्तु अभी भी नहीं चुके हैं
वह हर विचार
तालिबानी विचार है
जो इंसान से
उसका विवेक छीनकर
उसे जानवर बनाता है
नियमित रूप से घर में
बकरा हलाल करते करते
हम संवेदनहीन और
भावशून्य होते गये
उस पर चरमपंथी विचारों से
पता ही नहीं चला
कब हम स्वयं बकरा हो गये
इसलिये अब द्रश्य बदल गया है
अब एक बकरा
दूसरे बकरे को
हलाल कर रहा है

Friday, April 13, 2007

न्यायप्रिय और सत्यनिष्ठ...

संस्कार से न्यायप्रिय और सत्यनिष्ठ वह
भाग्यवादी और धार्मिक नहीं था
धर्म और इंसानियत को ही
भगवान की पूजा मानता
समाज को बदलने का उसका
जोश देखते ही बनता
अन्याय के प्रति उसका
रोष चकित करता


पर धीरे-धीरे उसने जाना
महत्व इस बात का नहीं
कि कोई क्या बोल रहा है
महत्व इस बात का है
कि वह कौन है और
कहाँ से बोल रहा है


इंसानियत को पूजा मानने वाला
कभी-कभी थक जाने पर
चिड़कर कहता
सबकुछ अपने हाथ में नहीं होता
भाग्य भी भला कोई चीज़ है

भगवान की मर्जी के बिना
एक पत्ता भी नहीं हिलता

पर जैसे हारना तो
वह जानता ही ना था
संघर्ष को ही जीवन मानता
पूछने पर कहता
यह कोई संकल्प नहीं है
पर थक कर, हार हम जायें
ऎसा कोई विकल्प नहीं है

Sunday, April 08, 2007

इंसानियत के वास्ते...

यह कविता इराक युद्ध में निरंतर हो रही निर्मम तबाही के कारण ह्रदय से प्रस्फ़ुटित हुई है.......
जाने कब रूकेगा यह रोज का विध्वंस
आज फ़िर कुछ कोपलों ने साथ छोड़ा पेड़ का
कब तलक मरते रहेंगे ख्वाब कच्ची नींद में
जान लो तुम मौत इनकी यूँ ना खाली जायेगी
तुम अगर बच भी गये जो आज अपने पाप से
कैसे बचोगे तुम बताओ इस निहत्थे श्राप से
पीढ़ियाँ बच ना सकेंगी घोर इस संताप से
है अशुभ सबकुछ वहाँ जहाँ आह है निर्दोष की
हर घड़ी शुभ है जो रोके घोर इस अन्याय को
इंसान वह है जो चले इंसानियत के रास्ते
अब भी समय है चेत जाओ इंसानियत के वास्ते
जिदंगी की राह में ना हो मौत का संकल्प कोई
और वक्त को भी रोक दो गर बच सके निर्दोष कोई