अभी कुछ दिन पहले
किसी अपने ने मुझसे कहा
अरे अब तो आप भी हो गये
रीतेश होशंगाबादी
मैं सोचने लगा
अब कहाँ होती है
व्यक्ति की पहचान उसके
गाँव या शहर से
उसकी पहचान
अब सिर्फ़ इससे है
की वह आदमी है या औरत
और हाँ उसकी उम्र क्या है
मेरा शहर जो
समय से पहले ही
जवान हो गया है
मुझे बूढ़ा घोषित कर चुका है
लेकिन वो यह नहीं जानते
की मैं शहर में नहीं
शहर मेरे अंदर रहता है
और जब तक ऎसा है
मेरे जैसा हर व्यक्ति
नहीं करने देगा उन्हें
अपने ही शहर की
संस्कृति का अपहरण
Tuesday, September 18, 2007
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''अब कहाँ होती है
ReplyDeleteव्यक्ति की पहचान उसके
गाँव या शहर से'' बार- बार पढ़ने योग्य है,
शब्द और बिंब में ग़ज़ब का तालमेल.
बधाईयाँ ....../
अच्छा चिंतन लिखा है रीतेश हौशंगाबादी जी.बधाई. :)
ReplyDeleteशायद यही है अपने शहर से दूर रहने की तकलीफ...रितेश जी इस जितनी तारीफ की जाए कम है
ReplyDeleteरितेश जी,
ReplyDeleteआपके प्रयास सराहनीय है और में अपने ब्लॉग पर आपका ब्लॉग लिंक कर दिया है। ऐसे ही भावपूर्ण लिखते रहो।
इन पंक्तियों में भाव-सौंदर्य देखने लयक है।
ReplyDeleteकी मैं शहर में नहीं
शहर मेरे अंदर रहता है
और जब तक ऎसा है
मेरे जैसा हर व्यक्ति
नहीं करने देगा उन्हें
अपने ही शहर की
संस्कृति का अपहरण
सारी कविता अच्छी लगी।
रितेश भाई,
ReplyDeleteयह कविता अब तक मुझसे अछूती रही???
बात यह है कि अभी काफी व्यस्त रहता हूँ इसकारण ज्याद समय नहीं दे पाता पर आज जब यहाँ आया तो भावनाएं मेरा हाथ पकड़कर लगातार पढ़ने को इशारा देती रही…।
अद्भुत!!!
रविन्द्र जी, लालाजी, सुबोध भाई, महावीर जी, दिव्याम भाई,
ReplyDeleteआप सभी की टिप्पणी का हार्दिक धन्यवाद
कृपया ऎसा ही स्नेह बनाये रखें..
बहुत अच्छा लिखते हैं। पहली बार पढ़ा़। आगे इंतजार रहेगा।
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