Saturday, September 29, 2007

सपने भी सुंदर आयेगें...

संस्कारों से मिली थी
उर्वरा धरती मुझे
स्नेह का स्पर्श पाकर
बाग पुष्पित हो गया
भावनाओं से पिरोया
सूत में हर पुष्प को
माला ना फ़िर भी बन सकी
अर्पण जिसे मैं कर सकूँ
हे ईश सविनय आज तुमको

प्रयास भगीरथ का यहाँ
हमसे यही तो कह रहा
असंभव कुछ भी नहीं
सत्कर्म पर निष्ठा रखे
गर आदमी चलता रहे

फ़िर सोचता हूँ
क्या कर्म है सबकुछ जहाँ में
भाग्य कुछ होता नहीं
सच है अगर यह बात तो
श्रमवीर सब हँसते जगत में
एक भी रोता नहीं

कर्म है सबका सवेरा
भाग्य कुछ सपनों सा है
कर्म अगर अच्छे रहे
तो सपने भी सुंदर आयेगें

Tuesday, September 18, 2007

अपहरण...

अभी कुछ दिन पहले
किसी अपने ने मुझसे कहा
अरे अब तो आप भी हो गये
रीतेश होशंगाबादी
मैं सोचने लगा
अब कहाँ होती है
व्यक्ति की पहचान उसके
गाँव या शहर से
उसकी पहचान
अब सिर्फ़ इससे है
की वह आदमी है या औरत
और हाँ उसकी उम्र क्या है
मेरा शहर जो
समय से पहले ही
जवान हो गया है
मुझे बूढ़ा घोषित कर चुका है
लेकिन वो यह नहीं जानते
की मैं शहर में नहीं
शहर मेरे अंदर रहता है
और जब तक ऎसा है
मेरे जैसा हर व्यक्ति
नहीं करने देगा उन्हें
अपने ही शहर की
संस्कृति का अपहरण

Friday, September 14, 2007

एक अच्छी कविता की नींव...

कुछ देर पहले ही की तो बात है
हर तरफ़ लगा हुआ था मेला
कोई भी नहीं था मेरे अंदर अकेला
मिल रही थी ह्रदय को पर्याप्त वायु
मन आश्वस्थ था
और कान भूल गये थे सन्नाटे की आवाज
फ़िर रूक रूककर आने लगीं गहरी साँसें
रह रहकर आने लगी सन्नाटे की आहट
जैसे जा रहा हो कोई दूर मुझसे
अचानक यह सिलसिला भी बंद हो गया
हर तरफ़ भीड़ थी फ़िर भी
मन बिलकुल अकेला हो गया
तुरंत ही मन बावला हो
ढूँढने लगा अपने संगी-साथी
कुछ ही देर की छ्टपटाहट के बाद
मन रूका और सोचने लगा
किससे कहेगा यह मन
अपने मन की बात
बुध्दिवादी दुनियाँ में
ह्रदय की कविता कौन समझेगा
आजकल किसके पास है
ऎसा धीरज और समय
जो रुकेगा कविता के लिये
एकाएक ही मन
उत्साहित हो चल दिया
चिट्ठों की दुनियाँ में
यहाँ भी सबकुछ प्रिय नहीं मिला
पर मिले प्रियंकर
जिनकी कवितायें बता रहीं थीं
कविताओं के कई आयाम
यहाँ भी कोई फ़ुरसत में नहीं मिला
पर मिले फ़ुरसतिया
जिनके जीवन स्पर्शी संस्मरण
ले गये मुझे साहित्य की गोद में
यहाँ मिली मुझे लालाजी की उड़न तश्तरी
जिसमें बैठते ही मन
भूल गया अपना अकेलापन
यहाँ ही मन मिल सका
एक अदभुत दिव्य से
जो पारखी था शब्दों और भावनाओं का
फ़िर मिला एक गीतकार
जिनके श्रीमुख से प्रस्फ़ुटित हो
निर्मल सरिता से बह रहे थे गीत
इन्हीं सब भावनाओं के बीच
मैंने देखा
मन फ़िर रख रहा था
एक अच्छी कविता की नींव