मेरी रागिनी मनभावनी
मेरी कामिनी गजगामिनी
जीवन के पतझड़ में मेरे
तू है बनी मेरी सावनी
शब्द सब खामोश थे
बेरंग थी मन भावना
संगीतमय जीवन बना
जो तू बनी मेरी रागिनी
आँखों को जो अच्छा लगे
सुंदर कहे दुनियाँ उसे
सिर्फ़ सुंदर तुम्हें कैसे कहूँ
जो तू तो है मनमोहिनी
तू है कहीं कोई डगर
मैं जानता हूँ ये मगर
शामें वहाँ खुशहाल हैं
और है तिमिर में रोशनी
जीवन की है यह दोपहर
अभी दूर है अपनी सहर
मंजिल का वो मेरा यकीं
तेरा साथ है मेरी संगिनी
मेरी रागिनी मनभावनी
मेरी कामिनी गजगामिनी
*सहर=सुबह
**तिमिर=अंधेरा
Sunday, August 26, 2007
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रितेश भाई,
ReplyDeleteबेहतरीन कविता… पढ़कर मजा आगया…।
दिव्याम भाई,
ReplyDeleteआपकी टिप्पनी हमेशा की तरह बहुत प्रोत्साहित करती है ...हार्दिक धन्यवाद
तीन दिन के अवकाश (विवाह की वर्षगांठ के उपलक्ष्य में) एवं कम्प्यूटर पर वायरस के अटैक के कारण टिप्पणी नहीं कर पाने का क्षमापार्थी हूँ. मगर आपको पढ़ रहा हूँ. अच्छा लग रहा है.
ReplyDeleteरीतेश जी
ReplyDeleteआपकी कविताएँ बहुत प्रभाव पूर्ण है। मैने अपने
ब्लॉग पर आपकेब्लॉग का लिंक जोड़ा है और आशा है की आप इसी तरह अपनी रचनाएं लिखते रहेंगे ।
दीपक भारतदीप
सुन्दर भावनायेँ हैं रीतेष बाबू।
ReplyDeleteशब्द और बिंब में ग़ज़ब का तालमेल.कविता प्रभाव पूर्ण है। पढ़कर मजा आगया…। आपकी प्रस्तुति वेहद -वेहद प्रशंसनीय है. बहुत -बहुत वधाईयाँ .
ReplyDeleteरीतेश
ReplyDeleteसुंदर भाव हैं, प्रवाह है, शब्द-चयन का औचित्य - बहुत अच्छी कविता लगी।
ऐसे ही लिखते रहो।
हिंदी दिवस पर मेरी तरफ़ से बधाई
ReplyDeleteदीपक भारतदीप्
TUS1rm Your blog is great. Articles is interesting!
ReplyDelete91Cn64 Wonderful blog.
ReplyDeletehnskEf Nice Article.
ReplyDeletePlease write anything else!
ReplyDeleteNice Article.
ReplyDeleteNice Article.
ReplyDeleteWonderful blog.
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