यह जानकर की घर में आज उपमा बना
मन हो गया प्रसन्न जो था कुछ अनमना
अपने आप में ही पूर्ण होता है उपमा
नहीं चाहिये इसे रंग-बिरंगी सब्जियों का साथ
बस सूजी को देशी घी में थोड़ी देर तक
मातृप्रेम रूपी हल्की आँच में पकाईये
माँ के समान शीतल थोड़ा दही मिलाईये
माँ की डाँट जैसी मीठी नीम के साथ
माँ की खुशबू लिये राई का तड़का लगाईये
लीजिये हो गया उपमा तैयार
न तो इतना तरल की समेटा न जाये
और न ही इतना शुष्क की खाया न जाये
बिलकुल माँ के मन की तरह
अनुशासित परंतु संवेदनशील
माँ के पास ले जाता है उपमा
दूजा नहीं कोई है तेरे जैसा
तुझे कैसे दूँ किसी और की उपमा
उपमा का माँ से गहरा संबंध है
और अब यह कोई राज नहीं
की उपमा मुझे बहुत पसंद है
Tuesday, March 27, 2007
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वाह,उपमा पकाते खाते माँ की याद! अच्छी लगी कविता और उपमा भी।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
उपमा को उच्चत्त्म उपमा प्रदान की है आपने माँ के प्यार और दुलार की. बहुत खूब.
ReplyDeleteअरे वाह, कित्ता बढि़या बना लिया उपमा !
ReplyDeleteमुहं मे पानी आ गया !
ReplyDeleteसुन्दर लगी भावनाओं की यह उड़ान उपमाओं वाली
ReplyDeleteजिनके केवल परस मात्र से महक उठे हर मन की थाली
हर इक बार व्यक्त होकर भी जो अव्यक्त रही हैं अब तक
वे अनुभूति पिरोईं तुमने, अद्भुत, अनुपम और निराली
घुघूती जी, समीर जी,
ReplyDeleteजानकर अच्छा लगा की आपको कविता अच्छी लगी.
आपकी टिप्पणी का ह्रदय से धन्यवाद ॥
अनूप जी,
बहुत दिनो से मन कर रहा था बनाने का....
बस यू ही बनते बनते बन गया उपमा
प्रभात जी,
आपको उपमा अच्छा लगा ...बहुत धन्यवाद !!
राकेश जी,
आपकी कवितामयी टिप्पणी पढ़कर बहुत अच्छा लगा । आपसे इतनी सुंदर टिप्पणी पाकर
यह कविता अब पास हो गई है ।
उपमा तो मुझे भि बहुत पसन्द है भाई...
ReplyDeleteबहुत बढिया लगी कविता ...
और कुछ पकायें तो हमे जरूर बतायें