नालिश तने की कि साखें साथ नहीं देतीं मेरा
सुनो मोहम्मद इस पेड़ की साखों का बिखरना तय है
डगर कठिन है कविताओं की मेरे दोस्त
यह रास्ता आम नहीं दीवाने खास है
क्यारियों के सूखने पर क्यों उजाड़ते हो उपवन
बदलो क्यारियों को गुलज़ार फ़िर है गुलशन
यहाँ दिये न जलाओ मेरे दोस्त
इस महफ़िल में सभी ने अंधेरों से दोस्ती कर रख्खी है
खिलकर महकाऊँ जहाँ को यह तमन्ना है एक कली की
भोंरा कोई कमबख्त मगर गुनगुनाता नहीं मिलता
सुनकर शायरों को लिखें हैं ये शेर मैंने
ये लेखनी यह लिखावट मेरी नहीं मुनब्बर
हम तो तेरे जैसे शायरों की शायरी पर फ़िदा हुए हैं
*नालिश= आरोप, शिकायत करना
Monday, October 30, 2006
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वाह क्या बात हैं!
ReplyDeleteपहली पंक्तियाँ तो सुभान अल्लाह
सुनकर शायरों को लिखें हैं ये शेर मैंने
ReplyDeleteये लेखनी यह लिखावट मेरी नहीं मुनब्बर
हम तो तेरे जैसे शायरों की बंदगी में स्वाहा हुए हैं
बहुत धन्यवाद !! संजय भाई
रीतेश गुप्ता
बहुत खूब। लिखते रहो मियाँ।
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