Monday, October 30, 2006

यहाँ दिये न जलाओ....

नालिश तने की कि साखें साथ नहीं देतीं मेरा
सुनो मोहम्मद इस पेड़ की साखों का बिखरना तय है


डगर कठिन है कविताओं की मेरे दोस्त
यह रास्ता आम नहीं दीवाने खास है


क्यारियों के सूखने पर क्यों उजाड़ते हो उपवन
बदलो क्यारियों को गुलज़ार फ़िर है गुलशन

यहाँ दिये न जलाओ मेरे दोस्त
इस महफ़िल में सभी ने अंधेरों से दोस्ती कर रख्खी है


खिलकर महकाऊँ जहाँ को यह तमन्ना है एक कली की
भोंरा कोई कमबख्त मगर गुनगुनाता नहीं मिलता


सुनकर शायरों को लिखें हैं ये शेर मैंने

ये लेखनी यह लिखावट मेरी नहीं मुनब्बर
हम तो तेरे जैसे शायरों की शायरी पर फ़िदा हुए हैं


*नालिश= आरोप, शिकायत करना

3 comments:

  1. वाह क्या बात हैं!
    पहली पंक्तियाँ तो सुभान अल्लाह

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  2. सुनकर शायरों को लिखें हैं ये शेर मैंने
    ये लेखनी यह लिखावट मेरी नहीं मुनब्बर
    हम तो तेरे जैसे शायरों की बंदगी में स्वाहा हुए हैं

    बहुत धन्यवाद !! संजय भाई

    रीतेश गुप्ता

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  3. बहुत खूब। लिखते रहो मियाँ।

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आपकी टिप्पणी और उत्साह वर्धन के लिये हार्दिक आभार....