Saturday, October 14, 2006

इसमें क्या कठिनाई....

कौन जान सका है यारों सागर की गहराई
गहरा उतरो द्रवित ह्रदय में इसमें क्या कठिनाई


संभव नहीं की दूर गगन में पंछी बन उड़ जाऊँ
उन्नत राष्ट्र के स्वप्न में विचरो इसमें क्या कठिनाई

कौन जान सका है यारों नील गगन ऊँचाई
जाँनू वीर जवानो को मैं इसमें क्या कठिनाई

किसने जाना भार धरा का जो सहती है भार सभी का
माँ का वंदन कर लो यारों इसमें क्या कठिनाई

2 comments:

  1. कवि कल्पना को आपने बख़ूबी यथार्थ के धरातल पर उतारा है।

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  2. प्रतीक जी,

    जानकर अच्छा लगा की आपको कविता अच्छी लगी

    आपकी टिप्पणी का बहुत धन्यवाद !!

    रीतेश गुप्ता

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आपकी टिप्पणी और उत्साह वर्धन के लिये हार्दिक आभार....