चाहत दिलों में फ़ूलों की रखकर
अक्सर ही काँटे क्यों बोते हैं हम
रंगों-सुगंधों में नित-नित उलझकर
याद तीरथ बुढ़ापे में करते हैं हम
चाहत बहू हो तन-मन की सुदंर
क्यों संस्कार नहीं बेटी को देते हैं हम
नालिश की सच्चे लोग मिलते नहीं
कत्ले अच्छाई हिफ़ाजत से करते हैं हम
नेह, न्याय का वरण करें और जानें पीर पराई
स्वयं को इंसान अगर कहते हैं हम
*नालिश= आरोप, शिकायत करना
Wednesday, October 11, 2006
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क्या सटीक व्यंग है आपकी सारी कविताऐं बहुत अच्छी लगी
ReplyDeleteमाननीय दरबारीलाल जी,
ReplyDeleteआपकी टिप्पणी का बहुत धन्यवाद !!!
रीतेश