"देदी हमें आजादी बिना खडग बिना ढाल" जैसे
तराने गाँधी की शख्सियत को
जीवंत कर देते हैं
फ़िर सोचता हूँ ये तराने
न होते तो क्या होता
नहीं होता दिमाग में कुछ देर के
लिये होने वाला केमिकल लोचा
नहीं याद आते गाँधी
उनकी जयंती पर भी
नहीं जागतीं पंद्रह अगस्त के दिन भी
वतन पर मर मिटने की भावनाएँ
देश इन्हें देने वालों का
सदा के लिये ऋणी हुआ है
लेकिन अफ़सोस कि हमने
उन्हें आज भुला दिया है
"सोवे गोरी का यार बलम तरसे"
देने वाले दादा साहब फ़ालके पाते हैं
और "मेरे देश की धरती सोना उगले"
देने वाले मनोज कुमार भुला दिये जाते हैं
जब-जब हम बुराई को सम्मानित
और अच्छाई की उपेक्षा करते रहेंगे
हमारे समाज के गाँधी
बार-बार यूँ ही मरते रहेंगे
Wednesday, October 04, 2006
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सच में बहुत ही सोंचनीय है यह्… अत्यंत ही मार्मिक व विचारणीय है यह कविता… मानवीय मनोविज्ञान है ही कुछ ऐसा जैसा आपने लिखा है--
ReplyDeleteहम सबसे पहले बुराई को पकड़ते हैं अच्छाई हमेशा आश्रय ही तलाश रहा होता है…।
अच्छा किया लिंक देकर नहीं तो बहुत अच्छी लेखनी छूट जाती…।
बहुत ही सुंदर्…।