हर जीत मुझे इतना क्यूँ थका देती है
क्यूँ जीत में भी सुकून नहीं मिलता
खुद से रुबरु हो लीजिये
खुद से ही आँखे चुराने में क्या रख्खा है
तुम ही तुम हो तो क्या तुम हो
अकेले फ़ूल से उपवन नहीं बना करते
सात रंगों के साथ से बनता है इन्द्र्धनुष
जीवन गुलशन कर लीजिये
इस बेखुदी में क्या रख्खा है
सहर से रात हो जायेगी
हालते बयाँ बतों से फ़िर भी न हो पायेगी
कविताओं में ही कुछ कह दीजिये
यूँ बातों में क्या रख्खा है
*बेखुदी=बेहोशी
Thursday, October 26, 2006
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बहुत बढिया
ReplyDeleteकविता करनी आई नहीं
ReplyDeleteफिर सीधे सीधे कहने दे
महत्व तो कहने का हैं
तरिके में क्या रख्खा हैं.
मलाल दिल मे किसी दर्द का नही रखना
ReplyDeleteकोई बुरा जो कहे दिल बुरा नही रखना ।
ये दुश्मनी तो बहुत फ़ास्ले बढा देगी
हमारे बाद किसी से गिला नही रखना ।
अली
shuaib, संजय और अली साहब,
ReplyDeleteआपकी टिप्पणी का बहुत धन्यवाद !!!
रीतेश गुप्ता