आज बहती हर तरफ़ है
प्रेम की ख़लिश* बयार
और ख़ालिस** प्रेम तो
माँगे विशुद्ध भाव यार
संग प्रीति प्रेम की सीमा असीमित
संग भीति हुआ है लघु और सीमित
पत्नि बनी है प्रेम की परिधि यहाँ पर
भोग अर्जन अब हुआ परिवार सीमित
है हमें विस्तार की जरूरत
यह सुकुड़ते प्रेम का युग है
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बस नाम के ही प्रेम हैं मिलते यहाँ पर
मिलता नहीं कोई रामसेवक और कर्मवीर यहाँ
नाम से छोटे हुए हैं आज मेरे कर्म भी
है हमें संस्कार की जरूरत
यह सिमटते धर्म का युग है
*ख़लिश=चुभन
**ख़ालिस=खरा
Wednesday, December 27, 2006
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उन्मुक्त प्रेम की उलझी हुई अभिलाषा में लिखी गई कविता.
ReplyDeleteसंजय भाई,
ReplyDeleteसही कहा है आपने
आपकी टिप्पणी का धन्यवाद !!
रीतेश
"यह सुकुड़ते प्रेम का युग है
ReplyDeleteबस नाम के ही प्रेम हैं मिलते यहाँ पर"
so true!gr8 work sir!