Saturday, December 02, 2006

स्वाध्याय मिलन और हम...

स्वाध्याय मिलन की कुछ यादें हैं
सोचा क्यूँ ना आज इन्हें समेट लूँ
भावनाओं को शब्दों में उतार दूँ
जीवन के रेगिस्तान में
मिलन शीतल नीर सा लगा
मिलने पर आनंद और
बिछुड़ने पर पीर सा लगा
स्वार्थ कपट के इस दलदल में
मिलन कबीर की झीनी चादर
कस्तूरी की गंध से विचलित
मानव बिछड़ा अपने दल से
पर मिलने पर उसने जाना
कस्तूरी नाभी में तब से
अभी-अभी जुड़कर टूटा है
और आतुर है फ़िर जुड़ने को
पर मिलने पर उसने जाना
धीर धर्म और शील को माना
अब खुश है अपने कुनबे में
पाकर चूल्हा चक्की रोटी

3 comments:

  1. मिलन मधुर है, भाव सुन्दर।

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  2. रत्ना जी,

    जानकर खुशी हुई की आपको कविता अच्छी लगी.

    कृपया ऐसा ही स्नेह बनाये रखें ।

    रीतेश गुप्ता

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आपकी टिप्पणी और उत्साह वर्धन के लिये हार्दिक आभार....