इसमें मान है मन के भावों का
अनुभूति जीवन की इसमें
कोई कोरा ज्ञान नहीं
इसमें जेठ की ऎंठ नहीं
और जेठानी की पैठ नहीं
यह तो कर्मॊं की पूजा है
और इसमें कोई सेठ नहीं
यह कविता तो गुणों की सानी है
इसमें देवरानी है रानी नहीं
इसमें देवर भी देव नहीं
वह भी मर्यादित वाणी है
यह कहानी जीवन रीतों की
और कविता है मन के मीतों की
Sunday, November 05, 2006
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चलिए मान लेते हैं, कविता न सास हैं न ससुर है, न जेठ है न जेठानी, न देवर न देवरानी. वह तो मन की वह मीत है जिसकी प्रेरणा से यह रची जा सकी है.
ReplyDeleteबढ़िया। संयुक्त परिवार की कविता।
ReplyDeleteबढ़िया कविता
ReplyDeleteसंजय, हिमांशु एवं भुवनेश भाईयों,
ReplyDeleteखुशी हुई यह जानकर की आपको कविता अच्छी ।
कृपया ऎसा ही स्नेह बनाये रखें ।
धन्यवाद !!
रीतेश
वाह- वाह्। कविता और घर-परिवार- बहुत अच्छा लिखा है। लिखते रहें, बधाई।
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