Monday, November 20, 2006

पताका धर्म की फ़हराईये....

आज बुराई अच्छाई पर हावी लगती है
अच्छाई की जीत अंत में ही क्यों होती है
पूरी फ़िल्म में हम खलनायक से सम्मोहित रहते हैं

बस नाम के लिये जीत अंत में नायक की करते हैं
टीवी पर अन्याय और कुटिलता से हम हैं रोमांचित
इसलिये करुणा और प्रेम से हम हो रहें हैं वंचित
अधर्म और बुराई की कोई गति नहीं होती
कुछ देने की क्षमता तो सिर्फ़ अच्छाई में होती
तटस्थ और मूक को भी मानेगा इतिहास दोषी
इन विरोधाभासों से स्वयं को बचाईये
धर्म-युद्ध में पताका धर्म की फ़हराईये

Sunday, November 12, 2006

और यह है कश्मीर....


कश्मीर की डल झील का नज़ारा

जिसकी लाठी उसी की भैंस....


इराक़ के पूर्व राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन के एक महल के सिंहासन पर आराम फ़रमाता अमरीकी सैनिक
इस तस्वीर ने अंदर तक हिला दिया........बहुत कुछ कहने को मज़बूर करती है यह......
यह मदमस्त हाथी संभाले ना संभलता है
महावत के सारे अंकुश नाकाम हुए हैं
कहते हो शान्ति के प्रयास जारी हैं
अभी कितनी और बस्तियाँ उजाड़ना बाकी है
हर उठती लहर को दबा दिया जायेगा
लेकिन किनारे पर उठी एक छोटी सी लहर भी
नदी के उस पार तक जाती है
पेप्सी-कोक किसी के रोके कहाँ रुकती है
अब तो जिसकी लाठी उसी की भैंस लगती है
विध्वंस किया घर को मेरे तुमने बनकर उद्दंड
और ऊपर से देते हो मुझे ही मृत्युदंड

Saturday, November 11, 2006

ताकि बन सके वो एक बेहतर इंसान.....

नौकर कहता है सेठ बड़े दयालु हैं
हर साल दिवाली पर मुझे नये कपड़े दिलाते हैं

अरे भाई मैं भी उनका बड़ा वफ़ादार नौकर हूँ
दो पीढ़ी से यहाँ काम कर रहा हूँ
सेठ चाहता है नौकर को केवल नौकर की तरह
और नौकर चाहता है सेठ को केवल सेठ की तरह
पर नहीं चाहते दोनों एक दूसरे को इंसान की तरह
अगर चाहते तो नौकर दो पीढ़ी से नौकर नहीं रहता
जब हम चाहते हैं इंसान को प्रकृति की तरह

तब करतें हैं अपनी भावनाओं की तरह उसकी भावनाओं का सम्मान
तब करतें हैं उससे ऎसा व्यवहार जैसा हमें है स्वयं के लिये पसंद
और प्रकृति की तरह देतें हैं उसे समान अवसर
ताकि बन सके वो एक बेहतर इंसान
जैसे शीतलता पसंद चंद्रमा सबको शीतलता देता है
जैसे सूरज के होते हुए भी रौशन रहता है दिया
 

Sunday, November 05, 2006

कविता है मन के मीतों की....

इसमें मान है मन के भावों का
अनुभूति जीवन की इसमें
कोई कोरा ज्ञान नहीं
इसमें जेठ की ऎंठ नहीं
और जेठानी की पैठ नहीं
यह तो कर्मॊं की पूजा है
और इसमें कोई सेठ नहीं
यह कविता तो गुणों की सानी है
इसमें देवरानी है रानी नहीं

इसमें देवर भी देव नहीं
वह भी मर्यादित वाणी है
यह कहानी जीवन रीतों की
और कविता है मन के मीतों की

मन करता कुछ सृजन करुँ....

जब दिनकर और निराला देखूँ
मन करता कुछ सृजन करुँ
बच्चन-प्रेमचन्द को पढ़कर
मन कहता
मैं भी कुछ गढ़ने का जतन करुँ
सुनकर गीत-प्रदीप के भाई
मन करता कुछ भजन करुँ
बुंदेलों से सुनी कहानी झाँसी वाली रानी की
सुनकर झाँसी की गाथायें
मन कहता की वीर बनूँ
वीर जवान कभी नहीं मरते
वो शहीद हो जाते हैं
सुनकर इनकी अमर कहानी
मन कहता की अमर बनूँ
सुनी कहानी पापा से जब गाँधी और जवाहर की

मेंने जाना नेताओं से नेता कैसे होते हैं
जब-जब देखूँ इनका जीवन
मन करता लोकनायक बनूँ

Wednesday, November 01, 2006

आँसू.....

ये निर्मल ह्रदय की पीड़ा हैं
ये फ़ुऱ्कत प्रेम के आँसू हैं
ये निश्छल प्रेम धरोहर हैं
ये नीर तो द्रवित ह्रदय के हैं
ये आदिल ह्रदय चढ़ावा हैं
ये होम तो करुण ह्रदय की है

ये शुष्क ह्रदय आहुति नहीं

*आदिल= न्यायपूर्ण, सच्चा, नेक, निष्कपट
*फ़ुऱ्कत= जुदाई, अनुपस्थिती(प्रेम में), विरह

*होम=आहुति