Wednesday, December 27, 2006

है हमें विस्तार की जरूरत....

आज बहती हर तरफ़ है
प्रेम की ख़लिश* बयार
और ख़ालिस** प्रेम तो
माँगे विशुद्ध भाव यार
संग प्रीति प्रेम की सीमा असीमित
संग भीति हुआ है लघु और सीमित
पत्नि बनी है प्रेम की परिधि यहाँ पर

भोग अर्जन अब हुआ परिवार सीमित
है हमें विस्तार की जरूरत
यह सुकुड़ते प्रेम का युग है

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बस नाम के ही प्रेम हैं मिलते यहाँ पर

मिलता नहीं कोई रामसेवक और कर्मवीर यहाँ

नाम से छोटे हुए हैं आज मेरे कर्म भी
है हमें संस्कार की जरूरत
यह सिमटते धर्म का युग है

*ख़लिश=चुभन
**ख़ालिस=खरा

Thursday, December 21, 2006

नया साल....एक मुक्तक

आइये नया साल धूमधाम से मनायें
राष्ट्र के प्रति अपना समर्पण दोहरायें
स्वार्थ, अन्याय, एवं गरीबी को हरायें
संवेदनशील एवं भावपूर्ण जीवन अपनायें

Tuesday, December 12, 2006

दस्तक दे रहा है नया साल......

दस्तक दे रहा है नया साल
और पुराना कह रहा है अलविदा

एक ओर जश्न की पूरी तैयारी है
टंकी भर ली है और डिस्को बुक कर ली है
दूसरी ओर किसान चढ़े हैं पानी की टंकी पर
ज़िन्दग़ी को ही दाव पर लगाते

कर्ज माफ़ी की गुहार और अपनी व्यथा से सरकार को अवगत कराते
इधर टीवी पर भी नये साल की पूरी तैयारी है
सब कुछ बेचने के बाद अब अंतरंग संबंधों की बारी है
पति पत्नी को कितना और कैसे चाहता है
गोविंदा की तरह लोग अपनी माँ से कितना प्यार करते हैं
नये साल की खुशी में इसका लाइव टेलिकास्ट किया जायेगा
महिलाओं के अपार उत्साह को देखते हुए
नये साल में टीवी सीरियल नये रूप में दिखाया जायेगा
और इसके माध्यम से पारिवारिक संबंधों में

गिरावट की नई संभावनाओं को तलाशा जायेगा

Sunday, December 10, 2006

बोगी नंबर S-8.....

छुट्टियाँ खत्म हो गई हैं
अब मुझे जाना होगा माँ
मेंने S-8 में रिजर्वेशन करा लिया है

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रत्ना अच्छा हुआ तूने फ़ोन किया
मैं कल कुछ दिनों के लिये बहन के पास जा रही हूँ
तू तो जानती है, बड़ा मन लगता है मेरा वहाँ
ले-दे के एक बहन ही तो है
पप्पू ने S-8 में रिजर्वेशन करा दिया है
स्टेशन में घुसते ही डब्बा सामने पड़ता है
रिजर्वेशन है तो दिक्कत नहीं है
दिन में बैठने को जगह मिल जाती है
रात में पेर सीधे हो जाते हैं
बड़ी अच्छी ट्रेन है, कभी लेट नहीं होती
सुरक्षित है, तड़के ही पहुँच जाऊँगी

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खबर है गाड़ी का एक्सीडेंट हो गया है
एक पुराना पुल S-8 पर गिर गया है
ईश्वर ने भाग्य का यह कैसा खेल रचा
लगता है बोगी नंबर S-8 में कोई नहीं बचा

मेरे जीवन का फ़ैसला भी ऎसे ही हो सकता था
सब लोगों की ही तरह मैं भी वहाँ हो सकता था
असुरक्षित सिर्फ़ हमारा जीवन ही नहीं हुआ है

मानवीय संबंधों के प्रति हम जितने असुरक्षित हुए हैं
सुख और शान्ति से उतने ही दूर हुए हैं

Saturday, December 02, 2006

स्वाध्याय मिलन और हम...

स्वाध्याय मिलन की कुछ यादें हैं
सोचा क्यूँ ना आज इन्हें समेट लूँ
भावनाओं को शब्दों में उतार दूँ
जीवन के रेगिस्तान में
मिलन शीतल नीर सा लगा
मिलने पर आनंद और
बिछुड़ने पर पीर सा लगा
स्वार्थ कपट के इस दलदल में
मिलन कबीर की झीनी चादर
कस्तूरी की गंध से विचलित
मानव बिछड़ा अपने दल से
पर मिलने पर उसने जाना
कस्तूरी नाभी में तब से
अभी-अभी जुड़कर टूटा है
और आतुर है फ़िर जुड़ने को
पर मिलने पर उसने जाना
धीर धर्म और शील को माना
अब खुश है अपने कुनबे में
पाकर चूल्हा चक्की रोटी

Monday, November 20, 2006

पताका धर्म की फ़हराईये....

आज बुराई अच्छाई पर हावी लगती है
अच्छाई की जीत अंत में ही क्यों होती है
पूरी फ़िल्म में हम खलनायक से सम्मोहित रहते हैं

बस नाम के लिये जीत अंत में नायक की करते हैं
टीवी पर अन्याय और कुटिलता से हम हैं रोमांचित
इसलिये करुणा और प्रेम से हम हो रहें हैं वंचित
अधर्म और बुराई की कोई गति नहीं होती
कुछ देने की क्षमता तो सिर्फ़ अच्छाई में होती
तटस्थ और मूक को भी मानेगा इतिहास दोषी
इन विरोधाभासों से स्वयं को बचाईये
धर्म-युद्ध में पताका धर्म की फ़हराईये

Sunday, November 12, 2006

और यह है कश्मीर....


कश्मीर की डल झील का नज़ारा

जिसकी लाठी उसी की भैंस....


इराक़ के पूर्व राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन के एक महल के सिंहासन पर आराम फ़रमाता अमरीकी सैनिक
इस तस्वीर ने अंदर तक हिला दिया........बहुत कुछ कहने को मज़बूर करती है यह......
यह मदमस्त हाथी संभाले ना संभलता है
महावत के सारे अंकुश नाकाम हुए हैं
कहते हो शान्ति के प्रयास जारी हैं
अभी कितनी और बस्तियाँ उजाड़ना बाकी है
हर उठती लहर को दबा दिया जायेगा
लेकिन किनारे पर उठी एक छोटी सी लहर भी
नदी के उस पार तक जाती है
पेप्सी-कोक किसी के रोके कहाँ रुकती है
अब तो जिसकी लाठी उसी की भैंस लगती है
विध्वंस किया घर को मेरे तुमने बनकर उद्दंड
और ऊपर से देते हो मुझे ही मृत्युदंड

Saturday, November 11, 2006

ताकि बन सके वो एक बेहतर इंसान.....

नौकर कहता है सेठ बड़े दयालु हैं
हर साल दिवाली पर मुझे नये कपड़े दिलाते हैं

अरे भाई मैं भी उनका बड़ा वफ़ादार नौकर हूँ
दो पीढ़ी से यहाँ काम कर रहा हूँ
सेठ चाहता है नौकर को केवल नौकर की तरह
और नौकर चाहता है सेठ को केवल सेठ की तरह
पर नहीं चाहते दोनों एक दूसरे को इंसान की तरह
अगर चाहते तो नौकर दो पीढ़ी से नौकर नहीं रहता
जब हम चाहते हैं इंसान को प्रकृति की तरह

तब करतें हैं अपनी भावनाओं की तरह उसकी भावनाओं का सम्मान
तब करतें हैं उससे ऎसा व्यवहार जैसा हमें है स्वयं के लिये पसंद
और प्रकृति की तरह देतें हैं उसे समान अवसर
ताकि बन सके वो एक बेहतर इंसान
जैसे शीतलता पसंद चंद्रमा सबको शीतलता देता है
जैसे सूरज के होते हुए भी रौशन रहता है दिया
 

Sunday, November 05, 2006

कविता है मन के मीतों की....

इसमें मान है मन के भावों का
अनुभूति जीवन की इसमें
कोई कोरा ज्ञान नहीं
इसमें जेठ की ऎंठ नहीं
और जेठानी की पैठ नहीं
यह तो कर्मॊं की पूजा है
और इसमें कोई सेठ नहीं
यह कविता तो गुणों की सानी है
इसमें देवरानी है रानी नहीं

इसमें देवर भी देव नहीं
वह भी मर्यादित वाणी है
यह कहानी जीवन रीतों की
और कविता है मन के मीतों की

मन करता कुछ सृजन करुँ....

जब दिनकर और निराला देखूँ
मन करता कुछ सृजन करुँ
बच्चन-प्रेमचन्द को पढ़कर
मन कहता
मैं भी कुछ गढ़ने का जतन करुँ
सुनकर गीत-प्रदीप के भाई
मन करता कुछ भजन करुँ
बुंदेलों से सुनी कहानी झाँसी वाली रानी की
सुनकर झाँसी की गाथायें
मन कहता की वीर बनूँ
वीर जवान कभी नहीं मरते
वो शहीद हो जाते हैं
सुनकर इनकी अमर कहानी
मन कहता की अमर बनूँ
सुनी कहानी पापा से जब गाँधी और जवाहर की

मेंने जाना नेताओं से नेता कैसे होते हैं
जब-जब देखूँ इनका जीवन
मन करता लोकनायक बनूँ

Wednesday, November 01, 2006

आँसू.....

ये निर्मल ह्रदय की पीड़ा हैं
ये फ़ुऱ्कत प्रेम के आँसू हैं
ये निश्छल प्रेम धरोहर हैं
ये नीर तो द्रवित ह्रदय के हैं
ये आदिल ह्रदय चढ़ावा हैं
ये होम तो करुण ह्रदय की है

ये शुष्क ह्रदय आहुति नहीं

*आदिल= न्यायपूर्ण, सच्चा, नेक, निष्कपट
*फ़ुऱ्कत= जुदाई, अनुपस्थिती(प्रेम में), विरह

*होम=आहुति



Monday, October 30, 2006

यहाँ दिये न जलाओ....

नालिश तने की कि साखें साथ नहीं देतीं मेरा
सुनो मोहम्मद इस पेड़ की साखों का बिखरना तय है


डगर कठिन है कविताओं की मेरे दोस्त
यह रास्ता आम नहीं दीवाने खास है


क्यारियों के सूखने पर क्यों उजाड़ते हो उपवन
बदलो क्यारियों को गुलज़ार फ़िर है गुलशन

यहाँ दिये न जलाओ मेरे दोस्त
इस महफ़िल में सभी ने अंधेरों से दोस्ती कर रख्खी है


खिलकर महकाऊँ जहाँ को यह तमन्ना है एक कली की
भोंरा कोई कमबख्त मगर गुनगुनाता नहीं मिलता


सुनकर शायरों को लिखें हैं ये शेर मैंने

ये लेखनी यह लिखावट मेरी नहीं मुनब्बर
हम तो तेरे जैसे शायरों की शायरी पर फ़िदा हुए हैं


*नालिश= आरोप, शिकायत करना

Thursday, October 26, 2006

जीवन गुलशन कर लीजिये.....

हर जीत मुझे इतना क्यूँ थका देती है
क्यूँ जीत में भी सुकून नहीं मिलता
खुद से रुबरु हो लीजिये
खुद से ही आँखे चुराने में क्या रख्खा है

तुम ही तुम हो तो क्या तुम हो
अकेले फ़ूल से उपवन नहीं बना करते
सात रंगों के साथ से बनता है इन्द्र्धनुष
जीवन गुलशन कर लीजिये

इस बेखुदी में क्या रख्खा है

सहर से रात हो जायेगी
हालते बयाँ बतों से फ़िर भी न हो पायेगी
कविताओं में ही कुछ कह दीजिये

यूँ बातों में क्या रख्खा है

*बेखुदी=बेहोशी

Sunday, October 22, 2006

दीवाली मनाई.....

दिन धनतेरस भाभी ने
घर-द्वार पर रंगोली सजाई
स्वागत है दीवाली बधाई हो बधाई
दिन दीवाली भाभी ने

लड्डू, पाक और मठरी बनाई
स्वागत है दीवाली बधाई हो बधाई
दिन दीवाली मित्रों ने

गीत-संगीत से घर की रौनक
बढ़ाई और हमने ढ़ोलक बजाई
स्वागत है दीवाली बधाई हो बधाई
रात दीवाली हुआ लक्ष्मी पूजन
और प्रज्जवलित दीपों से ग्रह-हस्ती जगमगाई
स्वागत है दीवाली बधाई हो बधाई
रोशन दिये सा रोशन बने मन
कामना कुछ ऎसी हमने जगाई
स्वागत है दीवाली बधाई हो बधाई

Tuesday, October 17, 2006

पापा को कविता भेजी....

नये कवि के रूप में हमें बहुत प्रोत्साहन मिला हेजी
उत्साहित हो हमने पापा को कविता भेजी
कविता पढ़कर पापा बोले बेटा बड़ा आनंद आया है

और तुमने सिर हमारा फ़ख्र से ऊँचा उठाया है
मेंने कहा यह सुंदर बगीचा चाचा और आपने लगाया है
हम तो सिर्फ़ इस बगीचे के फ़ूल हैं
चाची और मम्मी ने मिलकर इसे सींचा है
हम तो सिर्फ़ उनके चरणो की धूल हैं
हमारे छोटे इस उपवन के सबसे सुंदर फ़ूल हैं
अपनी ख़ुशबू से इन्होंने बड़ों को लजाया है
बड़ों की क्या बात कहें वे इस मधुवन के सशक्त प्रहरी हैं
उनकी छाया में हर फ़ूल उन्मुक्त खिलखिलाया है
ईश्वर हमेशा इस बगीचे पर मेहरबान हुए हैं

जीवन के हर मौसमी चिट्ठे हमने यहीं बुने हैं
हम तो सिर्फ़ छोटों और बड़ों के बीच की कड़ी बने हैं

तमन्ना है कविता हमें बेहतर इंसान बनाये
गर चले अकेले तो क्या चले हैं हम

मिटा गिले कुछ यूँ चलें की कारवाँ बने

Saturday, October 14, 2006

इसमें क्या कठिनाई....

कौन जान सका है यारों सागर की गहराई
गहरा उतरो द्रवित ह्रदय में इसमें क्या कठिनाई


संभव नहीं की दूर गगन में पंछी बन उड़ जाऊँ
उन्नत राष्ट्र के स्वप्न में विचरो इसमें क्या कठिनाई

कौन जान सका है यारों नील गगन ऊँचाई
जाँनू वीर जवानो को मैं इसमें क्या कठिनाई

किसने जाना भार धरा का जो सहती है भार सभी का
माँ का वंदन कर लो यारों इसमें क्या कठिनाई

Wednesday, October 11, 2006

हम....

चाहत दिलों में फ़ूलों की रखकर
अक्सर ही काँटे क्यों बोते हैं हम

रंगों-सुगंधों में नित-नित उलझकर
याद तीरथ बुढ़ापे में करते हैं हम

चाहत बहू हो तन-मन की सुदंर
क्यों संस्कार नहीं बेटी को देते हैं हम

नालिश की सच्चे लोग मिलते नहीं
कत्ले अच्छाई हिफ़ाजत से करते हैं हम

नेह, न्याय का वरण करें और जानें पीर पराई
स्वयं को इंसान अगर कहते हैं हम


*नालिश= आरोप, शिकायत करना

Thursday, October 05, 2006

मृत्युदंड....

न्यायपालिका ने अफज़ल को
संसद पर हमले की
साजिश में दोषी पाया है
न्याय स्वरूप मृत्युदंड का

फ़ेसला सुनाया है
लेकिन कुछ लोग

मृत्युदंड को अमानवीय पाते हैं
यारों ऎसे दंड हमें भी

कभी नहीं भाते है
पर डर के बिना इंसान

कभी-कभी हैवान बन जाते हैं
साँप भी अपनी रक्षा

के लिये सिर्फ़ फ़ुफ़कारता है
पर कभी-कभी काटकर

अपने इस विकल्प की याद दिलाता है
संसद पर हमला है
भारतीय लोकतंत्र पर घात
इसलिये अफज़ल तुम नहीं हो दया के पात्र

Wednesday, October 04, 2006

गाँधी यूँ ही मरते रहेंगे ......

"देदी हमें आजादी बिना खडग बिना ढाल" जैसे
तराने गाँधी की शख्सियत को
जीवंत कर देते हैं
फ़िर सोचता हूँ ये तराने

न होते तो क्या होता
नहीं होता दिमाग में कुछ
देर के

लिये होने वाला केमिकल लोचा
नहीं याद आते गाँधी

उनकी जयंती पर भी
नहीं जागतीं पंद्रह अगस्त के दिन भी

वतन पर मर मिटने की भावनाएँ
देश इन्हें देने वालों का

सदा के लिये ऋणी हुआ है
लेकिन अफ़सोस कि हमने

उन्हें आज भुला दिया है
"सोवे गोरी का यार बलम तरसे"

देने वाले दादा साहब फ़ालके पाते हैं
और "मेरे देश की धरती सोना उगले"

देने वाले मनोज कुमार भुला दिये जाते हैं
जब-जब हम बुराई को सम्मानित

और अच्छाई की उपेक्षा करते रहेंगे
हमारे समाज के गाँधी
बार-बार यूँ ही मरते रहेंगे

Sunday, September 24, 2006

क्या बम का अधिकारी है .....

निरंतर होते विस्फ़ोंटों से मानवता भी हारी है ।
आज मरा वो अपना ही था अब कल किसकी बारी है ।


भारतीय चिंतन, धर्म सनातन और वसुधा फ़ुलवारी है ।
ऐसा निर्मल जीवन भाई क्या बम का अधिकारी है ।

मरते सपने, मरते अपने और मरती किलकारी है ।
नये समय की नयी समस्या विपदा यह अति भारी है ।

जिस चिंतन पर मैं इठ्लाऊँ पितरों की चितकारी है ।
जोड़ो उसमें अपना कुछ तुम अब आई तुम्हारी बारी है ।

तंत्रों को मजबूत बनाकर दंडित करें दरिंदों को हम ।
पर दोष किसी कौम पर मढ़ना सोच नहीं हितकारी है ।

Saturday, September 16, 2006

क्यों मैं आनंद से भरता नहीं हूँ ...

क्यों मैं देता हूँ नित नये शूल ।
क्यों कर करता हूँ हर बार वही भूल ।
क्यों मैं आनंद से भरता नहीं हूँ ।

क्यों इस पर कुछ सोचता नहीं हूँ ।
और उत्तर प्रकृति में क्यों खोजता नहीं हूँ ।

आनंद बिना फ़ूल यूँ खुश़बू न उड़ाता ।
आनंद बिना सूरज ऐसे ना दमकता ।
और आनंद बिना होती ना तारों की टोलियाँ ।
इस तरह ही क्यों नहीं आता मुझे जीने में आनंद ।
देने में आनंद और सेवा में आनंद ।
त्याग में आनंद और प्रेम में आनंद ।
खुद भूख में भी माँ आनंद से बच्चों को खिलाती ।
आनंद सिर्फ़ इन्द्रियों के सुख में नहीं है ।
आनंद कोई जीवन की शर्त नहीं है ।
पर इसके बिना जीवन का अर्थ नहीं है |

कविता परवान चढ़ेगी ....

एक उभरते कवि ने एक कविता गढ़ी ।
बदले मैं उसे एक प्रतिक्रिया कुछ यूँ मिली ।
कृपया अपनी कविता का स्तर उठाइये ।
और साथ-साथ उसका वजन भी बड़ाइये ।
सम्मान पूर्वक कवि ने उत्तर दिया ।
श्रीमान आपने स्थिति को बिलकुल सही पढ़ा है ।
किन्तु यह कवि कुछ दिनों से ही कविता से जुड़ा है ।
आप काफ़ी समय से कविता के रसपान में जुटे हैं ।
और अभी तो मेरे दूध के दाँत भी नहीं टूटे हैं ।
आपके प्रोत्साहन से कविता सीड़ी दर सीड़ी आगे बढ़ेगी ।
फ़िर कहीं जाकर परवान चढ़ेगी ।

Saturday, September 09, 2006

आपने मेरी वो कविता पढ़ी होगी .....

जब दो भावनाएँ मिली होंगी ।
फ़िर कुछ देर संग आपके चली होगी ।
आपने मेरी वो कविता पढ़ी होगी ।

शब्दों की आँखमिचोली में है कविता ।
भावनाएँ विचारों को ले उड़ी होंगी ।
कुछ ऐसे ही कविता बनी होगी ।
ऐसे ही नहीं मिटता है अंधेरा ।
रात भर रोशनी तिमिर से लड़ी होगी ।
सुबह फ़िर गुनगुनाती सबको मिली होगी ।
कविताई उपेक्षा या तारीफ़ की गुलाम नहीं ।
फ़िर भी जिन्हें दाद रेणू मिली होगी ।

उनकी कविता खिलकर फ़िर खिली होगी ।

श्रीमति रेणू आहूजा (http://kavyagagan.blogspot.com/ ) को समर्पित .....

Friday, September 08, 2006

कुछ कर लीजिये ना ......

यूँ खाली न रहिये कुछ कर लीजिये ना ।
जाते समय को हाँथो में भर लीजिये ना ।
गर चाहते हो थोड़ा हँसना-हँसाना ।
थोड़ा स्वयं पर भी हँस लीजिये ना ।

याद में वतन की अब रोना नहीं है ।
थोड़ा वतन पर भी मर लीजिये ना ।
गर याद माँ-बाप आयें जो तुमको ।
उठा फ़ोन उनकी खबर लीजिये ना ।
यूँ बातों से उनका जी न भरेगा ।
और उनकी शीतल छाया अमर तो नहीं है ।

मिलिये इस तरह कि, मे बीबी-बच्चों के तर लीजिये ना ।
और याद उनकी आये तो जाने न पाये ।
उनको इस तरह ह्र्दय में मढ़ लीजिये ना ।

Thursday, September 07, 2006

कवि बन गया हूँ .....

तुम्हारे विरह में कवि बन गया हूँ
ठ्साठ्स भरी कवि-रेल में ठ्स गया हूँ
उत्साहित हूँ कवि स्वागत से मैं भी
और मन्त्रमुग्ध हूँ ऐसी कवितागिरी पर

तुमसे विरह पर अकेला नहीं हूँ
साथ भैया-भाभी के मैं चल पड़ा हूँ
दीपक की ज्योति से, भाभी की रोटी से,
बातों के मोती से खिलखिला गया हूँ
पाकर तुम्हें सब भूले हैं मुझको
सब भूले हैं मुझको मैं भूला हूँ मुझको
ऐसे में स्वयं को फिर गढ़ने चला हूँ

कायल हूँ तुम्हारे सहज कर्तव्यबोध का मैं
और सहज भाव से सब तुम्हारे हुए हैं
न तुमको पड़ा किसी को अपना बनाना

कवि-रेल में हूँ पर तुम्हारी कमी है
साथ में तुम्हारे सफ़र होगा सुंदर
और यह सिलसिला भी अविरत चल सकेगा

Wednesday, September 06, 2006

सोशलाइज़, सोशलाइट, और सोशल ऐक्टिविस्ट...

शब्दों और भावनाओं का
यूँ कचूमर न बनाईये
कृपया इनकी गरिमा को बचाईये
जिसे हम भावनात्मक
मिलना-जुलना कहते हैं
उसे सोशलाइज़ मत बनाईये
यह सोशलाइट क्या बला है
और इनसे समाज का कैसा भला है
बिना कुछ समाज का

भला किये ये सोशल भी हैं
और लाइमलाइट में भी हैं
लगता है आप समझे नहीं

यह सोशलाइट कौन हैं
और कहाँ पाये जाते हैं
मुझे भी नहीं मालूम था
लेकिन ये देर रात वाली
फ़ेशन पार्टियों में पाये जाते हैं
ये समाज को जितना देते हैं
उससे कई गुना अधिक चट कर जाते हैं
आईये ऐसा समाज बनायें

जहाँ सोशलाइट नहीं
सोशल ऐक्टिविस्ट को तरजीह मिले
अब यह मत पूछिये की

यह सोशल ऐक्टिविस्ट कौन है
सोशलाइट को जानते हैं

तो सोशल ऐक्टिविस्ट को
सम्मान से पास में बिठाईये
आज समाज को मेधा पाट्कर जैसे
सोशल ऐक्टिविस्ट की सबसे अधिक जरुरत है
आईये इनके कंधों से कंधा मिलाये
और एक बेहतर भारत बनायें

Tuesday, September 05, 2006

एक मुलाकात...

मेरी मुलाकात उत्तरप्रदेश से आये महान कवि श्री सोम ठाकुर, कवि ऐवम समाजवादी पार्टी के राज्यसभा सदस्य श्री उदयप्रताप सिंह, और युवा कवि ऐवम कंप्यूटर इंजीनियर भाई अभिनव शुक्ला से न्युजर्सी, अमेरिका में हुइ थी । कविता के रुप में प्रस्तुत है मेरा अनुभव ।......

कविवर सोम से मिलकर वैभव कविता का ज्ञात हुआ ।

बुध्दिवादी व्यवहारिक दुनिया में आत्मा का कैसा ह्रास हुआ ।
उदयप्रताप की बात निराली ऐसा हमने माना है ।
राजनीति की कठिन डगर पर हमने कविता को साधा है ।
समाजवादी इस मशाल का कविता से श्रृंगार हुआ ।
अभिनव की अदभुत क्षमता से युवा शक्ति का भान हुआ ।
विकल्पहीन नहीं हैं हम ऐसा द्रढ़ विश्वास हुआ ।
सूरज की इन किरणों से मिलकर रोशन हुआ तिमिर अन्तर्मन ।
मुझको भी बनना है दीपक ऐसा एक आगाज़ हुआ ।