Monday, May 05, 2008

धर्म भी आहत है...

कर्तव्य से बड़कर जहाँ पद है
यह मान नहीं मान का मद है


जहाँ खुलती नहीं वक्त से गाँठें
घर नहीं वो तो बस छत है

कौन फ़िर लगाये वहाँ मरहम
दृड़ जो सबके यहाँ मत हैं

दिल दुखाये जो अगर वाणी
मान लो झूठ जो अगर सच है

कद पर उसके तुम मत जाना
फ़ल नहीं छाया भी रुकसत है

कैसे रहें वहाँ पर खुशियाँ
दर्द एक हाथ का दूजा जहाँ खुद है

उस ज्ञान की क्या भला कीमत
जिसमे न्याय नहीं धर्म भी आहत है

5 comments:

  1. बहुत सही है, रीतेश-लिखते रहो. कम लिख रहे हो आजकल.

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  2. रितेष जी
    बहुत सही और मर्म स्पर्शी रचना है। बधाई

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  3. लालाजी, शोभा जी एवं राकेश जी,

    अच्छा लगा आपने कविता पढ़ी.....आपकी टिप्पणी और उत्साह वर्धन के लिये हार्दिक धन्यवाद

    रीतेश गुप्ता

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आपकी टिप्पणी और उत्साह वर्धन के लिये हार्दिक आभार....