Sunday, August 26, 2007

मेरी रागिनी मनभावनी...

मेरी रागिनी मनभावनी
मेरी कामिनी गजगामिनी
जीवन के पतझड़ में मेरे
तू है बनी मेरी सावनी

शब्द सब खामोश थे
बेरंग थी मन भावना
संगीतमय जीवन बना
जो तू बनी मेरी रागिनी

आँखों को जो अच्छा लगे
सुंदर कहे दुनियाँ उसे
सिर्फ़ सुंदर तुम्हें कैसे कहूँ
जो तू तो है मनमोहिनी

तू है कहीं कोई डगर
मैं जानता हूँ ये मगर
शामें वहाँ खुशहाल हैं
और है तिमिर में रोशनी

जीवन की है यह दोपहर
अभी दूर है अपनी सहर
मंजिल का वो मेरा यकीं
तेरा साथ है मेरी संगिनी

मेरी रागिनी मनभावनी
मेरी कामिनी गजगामिनी


*सहर=सुबह
**तिमिर=अंधेरा

15 comments:

  1. रितेश भाई,
    बेहतरीन कविता… पढ़कर मजा आगया…।

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  2. दिव्याम भाई,

    आपकी टिप्पनी हमेशा की तरह बहुत प्रोत्साहित करती है ...हार्दिक धन्यवाद

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  3. तीन दिन के अवकाश (विवाह की वर्षगांठ के उपलक्ष्य में) एवं कम्प्यूटर पर वायरस के अटैक के कारण टिप्पणी नहीं कर पाने का क्षमापार्थी हूँ. मगर आपको पढ़ रहा हूँ. अच्छा लग रहा है.

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  4. रीतेश जी
    आपकी कविताएँ बहुत प्रभाव पूर्ण है। मैने अपने
    ब्लॉग पर आपकेब्लॉग का लिंक जोड़ा है और आशा है की आप इसी तरह अपनी रचनाएं लिखते रहेंगे ।
    दीपक भारतदीप

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  5. सुन्दर भावनायेँ हैं रीतेष बाबू।

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  6. शब्द और बिंब में ग़ज़ब का तालमेल.कविता प्रभाव पूर्ण है। पढ़कर मजा आगया…। आपकी प्रस्तुति वेहद -वेहद प्रशंसनीय है. बहुत -बहुत वधाईयाँ .

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  7. रीतेश
    सुंदर भाव हैं, प्रवाह है, शब्द-चयन का औचित्य - बहुत अच्छी कविता लगी।
    ऐसे ही लिखते रहो।

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  8. हिंदी दिवस पर मेरी तरफ़ से बधाई
    दीपक भारतदीप्

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  9. TUS1rm Your blog is great. Articles is interesting!

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  10. 91Cn64 Wonderful blog.

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  11. Please write anything else!

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आपकी टिप्पणी और उत्साह वर्धन के लिये हार्दिक आभार....